कभी नहीं खोलुंगा कुछ अनकहे पन्ने इनमे सब कुछ है मेरा झूठ मेरा सच मुझे रोकता है भय भी, अपनापन भी अजीब सा है मन संभाले रखता है हर लम्हा एक अनूठा रिश्ता जो हर एहसास से अलहदानाम ढूंढो तो मिलता ही नहीं शिखर सा दिखता है समंदर सा भरा रहता है मगर छिपा रहता है खोने के भय से .....खोया-खोया रहता है अंतर में...हर पल बोलता .....मौन को ओढ़े मौन को खोलता मौन को रचता.....ये मौन का रिश्ता किसी एक से जुड़ा नहीं है ये तत्व से जुड़ा है ये रूह से जुड़ा है देह -प्रेम से मुक्तभाव बंधन से परे खुला-खुला ...बंधा-बंधा...खुद को खँगालता रूह....की खुशबू से महकता कुछ नहीं कहता ....जीता है अनुभूति .....रूह एक है .....रूह का नाम नहीं होता ....रूह...रूह...है ....बस...रूह.....
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